Blogspot - gautamrajrishi.blogspot.com - पाल ले इक रोग नादां...

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ब्लोगिंग के पाँच साल और इक ज़िद्दी-सा ठिठका लम्हा... 31 Jul 2013 | 12:33 am

हुश्श्श्श्श...घूमता पहिया समय का और देखते-ही-देखते पाँच साल हो गये ब्लोगिंग  करते हुये...यू हू हू sss !!! तो "पाल ले इक रोग नादां..." की इस पाँचवीं सालगिरह पर सुनिये एक ग़ज़ल :- इक ज़िद्दी-सा ठिठका ल...

लंबी रातें, कमीना चाँद और बूढ़ा मार्क्स... 8 Jul 2013 | 01:30 am

- रातों को जैसे खत्म ना होने की लत लग गयी है इन दिनों...बर्फ क्या पिघली, जाते-जाते कमबख़्त ने जैसे रातों को खींच कर तान दिया है | इतनी लम्बी रातें कि सुबह होने तक पूरी उम्र ही बीत-सी जाये ! - "रोमियो...

राजकमल चौधरी की स्मृति में...उनकी 46वीं पुण्यतिथि पर 19 Jun 2013 | 12:00 am

राजकमल आज ज़िंदा होते तो चौरासी वर्ष के होते | अड़तीस की उम्र भी कोई उम्र होती है दुनिया छोड़ कर चले जाने की ?  ज़िंदा होते तो इन बकाया तकरीबन पचास सालों में क्या कहर ढाते वो अपनी कविताओं और कहानियों ...

उड़ी बाजू में इक तितली तो गुब्बारा मचल उट्ठा... 3 Jun 2013 | 11:48 pm

...और अब जब आहिस्ता-आहिस्ता बर्फ पिघलने लगी है तो दबे-से झुके-से परबतों के कंधे तनिक सहज होने लगे हैं | पिछले सात-आठ महीनों से लगातार बर्फ की परत दर परत उठाए इन परबतों के कंधों से  हल्के हो रहे बोझ का...

हिन्दी कविता की लॉन्ग नाईन्टीज : एक पाठकीय प्रतिक्रिया 17 May 2013 | 12:11 am

ये एक रफ-ड्राफ्ट सा कुछ प्रतिक्रिया के तौर पर...वागर्थ के विगत कुछ अंकों को पढ़ने के बाद- अपनी ही लिखी कविताओं के मोह में उलझे महाकवियों के वर्तमान दौर में कायम उनके लीन-पैच के नाम... लॉन्ग नाईन्टीज...

चंद अनर्गल-सी कॉन्सपिरेसी थ्योरीज... 3 May 2013 | 01:00 am

१. देर तक फब्तियाँ कसता रहा था आईना खूब देर तक... बढ़ी हुई दाढ़ी जँचती नहीं अब कि पक गए हैं बाल सारे इस चिलबिलाती सर्दी में रोज़-रोज़ शेविंग की जोहमत... हाय ! ये कॉन्सपिरेसी उम्र और रेजर की २. ...

तेरे ही आने वाले महफ़ूज 'कल' की ख़ातिर... 3 Apr 2013 | 08:24 pm

...सब कुछ थमा हुआ था जैसे| पहाड़ों ने कंधे उचकाने बंद कर दिये थे, पत्थरों ने सिसकारी मारना छोड़ दिया था, चीड़ की टहनियों ने गर्दन हिलाना भुला दिया था...कुछ गतिमान थी तो बस वो हवा...वो तेज उद्दंड बदतमी...

जला दे रात की परतें, ज़रा शबनम सुलगने दे... 30 Dec 2012 | 08:55 pm

....अजीब सी बेचैनी कैसी है ये कि व्यक्त होने के लिए छटपटाती है, लेकिन शब्दों का सामर्थ्य एकदम से निरीह लगने लगता है| इसी वहशियों से भरे मुल्क की रक्षा करने की सौगंध उठाई थी क्या आज से पंद्रह साल पहले?...

इक तो सजन मेरे पास नहीं रे... 14 Nov 2012 | 07:08 am

{मासिक हंस के नवंबर 2012 अंक में प्रकाशित कहानी} वो आज फिर से वहीं खड़ी थी। झेलम की बाँध के साथ-साथ चलती ये पतली सड़क बस्ती के खत्म होने के तुरत बाद जहाँ अचानक से एक तीव्र मोड़ लेते हुये झेलम से दूर ...

तपते तलवे, कमबख़्त चाँद और एक कुफ़्र-सी याद... 2 Oct 2012 | 12:00 pm

बड़ी देर तक ठिठका रहा था वो आधा से कुछ ज्यादा चाँद अपनी ठुड्ढी उठाए दूर उस पार  पहाड़ी पर बने छोटे से बंकर की छत पर| अज़ब-गज़ब सी रात थी...सुबह से लेकर देर शाम तक लरज़ते बादलों की टोलियाँ अचानक से  ला...

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कुमाऊँ viswa, कुमाऊँ wishwa, muh chida, फुँकनी

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