Blogspot - kanchanc.blogspot.com - हृदय गवाक्ष

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विष वल्लरी 1 Jul 2013 | 03:03 am

शुरुआत कहीं से तो करनी ही है ना.... सोचती हूँ यही से करूँ। पिछले दिनो मधु दी द्वारा संपादित और सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित, पुरुष विमर्श पर आई पुस्तक 'एक सच ये भी' में कुछ पन्ने मेरे कहानी ने भी लिये।...

वो चबूतरा.... 5 Aug 2012 | 02:13 am

  शाम का इंतज़ार करते हम और हमारा इंतज़ार करता चबूतरा। हमारी दिन भर की कारगुजारियों का कच्चा चिट्ठा वहीं तो खुलता था। खिलखिलाता, गुनगुनाता, एक दूसरे का मजाक उड़ाता, एक दूसरे के टेंशन से रात ना सोये जान...

ना खुशी, ना ग़म.... 1 Jun 2012 | 03:03 am

पिछले ९ सालों में उस बाज़ार के सारे भिखारी अब शक्ल से पहचाने जाने लगे हैं। वो बूढ़े दादा..जिनके पास गुदड़ियों का एक पूरा भंडार है। जिनकी दाढ़ी भी उलझ उलझ कर गुदड़ी ही बन गई है। वो तीखे नाक नक्श वाली उनकी...

क्यों ना बैसाखी हवाओं पर चले आते हो तुम भी 23 Apr 2012 | 01:00 pm

पिछले वर्ष  लगभग इन्ही दिनों गुरू जी के ब्लॉग पर ग्रीष्म का तरही मुशायरा  हुआ था। वैशाख आया भी और जाने को भी है, तो सोचा लाइये ये मौसमी बयार यहाँ भी चले..... दोस्त सी आवाज़ देती, गर्मियों की वो दुपहर...

दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे.... 18 Apr 2012 | 09:10 am

जिंदगी का सफर जब शुरू होता है, तब पता भी नही होता कि मंजिल तक पहुँचते पहुँचते कितने अंजान चेहरे अपने लगने लगेंगे। लगता ही नही कि सफर की शुरुआत में ये जिंदगी में थे ही नही। ऐसा लगता है कि ये तो जमाने ...

चुवत अन्हरवे अजोर 5 Apr 2012 | 11:23 pm

लगभग १० माह..... और गवाक्ष के कपाट खुले ही नही.....इस वर्ष की शुरुआत के बाद चौथाई से अधिक वर्ष भी बीत गया.... बस इसलिये कि खिड़कियाँ खोलूँ, तो शायद कुछ ताज़ी हवा मिले, कुछ राहत हो दम घुटते माहौल से.......

हमें इंतज़ार कितना ये हम नही जानते 16 Jun 2011 | 01:30 pm

खाना जल्दी से बना के रख देना है। वर्ना किचेन में ही आ के बैठ जायेगा। और एक बार बात शुरू होगी तो खतम ही नही होगी। फिर दीदी गुस्सा होंगी। किचेन में ही बैठकी जम जाती है तुम्हारी। वो खाना बना कर बाहर बरा...

जियो खिलाड़ी वाहे वाहे 6 Apr 2011 | 08:18 pm

गुरू जी की पोस्ट पर टिप्पणी करने गयी, तो यादों के गलियारे में ऐसी भटकी कि टिप्पणी बन गयी पोस्ट... तो वो ही सही !! १९८३ पता नही याद है या बार बार याद दिलाने के कारण याद रहता है। पड़ोस की टी०वी० पर सब क...

कि मैने इतना नाटकीय जीवन कभी नही जिया था.....!!! 24 Mar 2011 | 02:22 am

पिछले १० वर्षों से साथ रहने के बावज़ूद.... वो ये नही समझा कि ये परिवर्तन जो उसे सुखद लग रहे हैं, वो किसी की जीवंतता की समाप्ति का लक्षण है। उसे नही पता चल रहा कि उसके साथी ने इतना नाटकीय जीवन कभी नही ...

बस अगर इतना होता 7 Mar 2011 | 03:30 pm

सोचती हूँ कि वो रातें, जो इस तसल्ली मिली बेचैनी से बिता दी जाती थीं, कि इधर हम इस लिये जग रहे हैं क्योंकि उधर कोई जागती आँखें ले कर जगा रहा है हमें.... कितनी आसानी से कट जातीं, ११ रू के एसएमएस पै...

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जेठ, हृदय, दीदियाँ, फाड़ दी, शर्मीली भाभी, तुम याद आये, कंचन

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