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जीवन की आपाधापी में 5 Nov 2006 | 01:09 am

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में, हर एक यहाँ पर ए...

था तुम्हें मैंने रुलाया! 4 Nov 2006 | 10:36 pm

हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा! हाय, मेरी कटु अनिच्छा! था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया! था तुम्हें मैंने रुलाया! स्नेह का वह कण तरल था, मधु न था, न सुधा-गरल था, एक क्षण को भी, सरलते, क्यों स...

जीवन की आपाधापी में 4 Nov 2006 | 08:09 pm

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिलाकुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँजो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखामैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,हर एक यहाँ पर एक भुल...

था तुम्हें मैंने रुलाया! 4 Nov 2006 | 05:36 pm

हा, तुम्हारी मृदुल इच्छा!हाय, मेरी कटु अनिच्छा!था बहुत माँगा ना तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!था तुम्हें मैंने रुलाया! स्नेह का वह कण तरल था,मधु न था, न सुधा-गरल था,एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुम...

क्षण भर को क्यों प्यार किया था? 4 Oct 2006 | 10:03 pm

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर, तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था? ‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’ और न कुछ मैं कहने पाया - मेरे ...

पथ की पहचान 1 Oct 2006 | 01:39 am

पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले। पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की जबानी अनगिनत राही गए इस राह से उनका पता क्या पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी...

पथ की पहचान 30 Sep 2006 | 09:39 pm

पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले। पुस्तकों में है नहींछापी गई इसकी कहानीहाल इसका ज्ञात होताहै न औरों की जबानी अनगिनत राही गएइस राह से उनका पता क्यापर गए कुछ लोग इस परछोड़ पैरों की निशानी यह निशा...

कनुप्रिया (समापन: समापन) 30 Jul 2006 | 11:23 pm

क्या तुमने उस वेला मुझे बुलाया था कनु? लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी! इसी लिए तब मैं तुममें बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी, इसी लिए मैंने अस्वीकार कर दिया था तुम्हारे गोलोक का कालावधिहीन रास, क्योंकि...

कनुप्रिया (इतिहास: समुद्र-स्वप्न) 30 Jul 2006 | 11:10 pm

जिसकी शेषशय्या पर तुम्हारे साथ युगों-युगों तक क्रीड़ा की है आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु! लहरों के नीले अवगुण्ठन में जहाँ सिन्दूरी गुलाब जैसा सूरज खिलता था वहाँ सैकड़ों निष्फल सीपियाँ छट...

कनुप्रिया (इतिहास: शब्द – अर्थहीन) 30 Jul 2006 | 10:34 pm

पर इस सार्थकता को तुम मुझे कैसे समझाओगे कनु? शब्द, शब्द, शब्द……. मेरे लिए सब अर्थहीन हैं यदि वे मेरे पास बैठकर मेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाए हुए तुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलते शब्द, शब्...

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